बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

वलेंतिने दिवस

शब्दों के हेर फेर और
ऊँची उड़ान से कुछ नहीं मिलता
गाली और कव्वाली के बिना.
आज कुछ कव्वाल मुरझाये
झुंझलाए पड़े थे ..
दिल्ली मेट्रो , कोलेजो और
माल के बाहर
अपने कव्वाली के इंतज़ार में
और कव्वाली
जो शायद ज्यादा ही दिख रही थी
लाल गुलाबो के झंझार में .
जो भी था
गाली और कव्वाली 
खुबसूरत थी...
तडपती कराहती
एक लपलपाहट में
अपने अस्तित्व को दिखाती ..
वलेंतिने दिवस पे...

शब्दों के हेर फेर और
ऊँची उड़ान से कुछ नहीं मिलता
गाली और कव्वाली के बिना.
आज कुछ कव्वाल मुरझाये
झुंझलाए पड़े थे ..
दिल्ली मेट्रो , कोलेजो और
माल के बाहर
अपने कव्वाली के इंतज़ार में
और कव्वाली
जो शायद ज्यादा ही दिख रही थी
लाल गुलाबो के झंझार में .
जो भी था
गाली और कव्वाली 
खुबसूरत थी...
तडपती कराहती
एक लपलपाहट में
अपने अस्तित्व को दिखाती ..
वलेंतिने दिवस पे...

नीर 

सोमवार, 23 जनवरी 2012

Aage aao..

दुर्गा का पूजक हो तुम  
 देवी के तुम  साधक ..
 माँ सरस्वती का वंदन करते 
 तूम आजीवन आराधक ..
माँ लक्ष्मी की सेवा का मन साथी 
.. तुम्ही बताओ 
हे मानुस 
तब क्यों 
मासूम बच्चियों  के तुम आघाती 
उन्हें बढाओ उन्हें सजाओ 
आगे आओ आगे आओ ...
उन्हें बचाओ ...


नीर (नृपेन्द्र कुमार तिवारी )

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

Ek kutta

 हर बार रस भरी 
नई हड्डी की तलाश में 
हिन्दुओं की 
भोंकता 
सूँघता घूरता 
एक कुत्ता 
वफादार 
जनपथ की राहों पर 
आज भी 
गुलाम है अपनी मालिक का 
लगातार सुरसुरी 
हो गई है इन दिनों रुकता ही नहीं..
बस भोक्ता है
जनपथ की सूनी 
राहों से आज भी 
और शोर करता है 
मेरे भीतर तक 
रहते हुए 
वो 
मेरी दिल्ली में .


सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

LAAL MEHANDI

अभी तो मेरे हाथ मासूम से थे 
तेरी नज़रो में 
रोज़ इनमे अपनी तस्वीर
 देखते थे तुम
मेहंदी कि महक लेते थे 
अपनी चेहरे मेरे हाथो से ढककर
सहसा देखकर मेरी तरफ
 कहा करते थे कि
गर्म चाय कि प्याले क्यों पकडती हो 
इस तरह 
सुबह सुबह 
आज क्या हो गया तुम्हे
जो इन्ही हाथो से 
मुझे मेरे घर से निकाल दिया मुझे 
मेरे वजूद को कतम करके 
मेरी हाथो कि तो 
अभी मेहंदी भी नहीं छूटी थी 
वो भी लाल है अव कई टुकडो में .





 
 

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

Anjaan ras

समझ न पाया तुझमे मुझमे 
मुझमे तुझमे कैसा भेद 
की हाय 
क्या रस मैंने पाया ?
                   जब भी देखा तुझको मैंने 
                    मुक्त किया मैंने अपना मन 
                    कुछ आवर्धन  कुछ संवर्धन  
                   तब साथ हुआ तन मेरा मुरझाया 
                   समझ न पाया तुझमे मुझमे 
                   मुझमे तुझमे कैसा भेद 
                   की हाय 
                    क्या रस मैंने पाया ..

हलके हलके जब तू बैठी 
हलके हलके मैं तब बैठा 
हलके हलके तू जो बोली 
हलके होके मैं भी बोला 
हलकी मन जो तू मुस्काई
ज्यादा होके मैं मुस्काया 
समझ न पाया तुझमे मुझमे 
मुझमे तुझमे कैसा भेद 
की हाय 
क्या रस मैंने पाया 
                       ज्यू  कुछ सोचे सखी चली तू 
                       भाग मेरे यु छली छली तू 
                       मैं  न रोका तू न रूकती 
                       तू न रोकी मैं न रुकता 
                      दे मुसकाहट होठो पे रे
                      ज्योति जीवन भरमाया 
                      समझ न पाया तुझमे मुझमे 
                      मुझमे तुझमे कैसा भेद  
                     की हाय 
                      क्या  रस मैंने पाया 

नजरो में जब तेरी नजर चहकती 
समर सी जो फूल महकती 
कर नजरे मैं निचे धीमे 
हौले चुराता मोती 
मोती मोटी बुँदे होती 
या 
बुँदे मोटी मोंती..
समझ  पाया तुझमे मुझमे 
मुझमे तुझमे कैसा भेद 
.......
......................

                       
                           

apne pass ..

एक खुबसूरत लफ्ज़ और मीठी आवाज़
मुझे मुझसे जोड़ देती है ,
खुद को भूलकर कभी जो
निकल भी जाऊ खुद से  दूर
तो लौट के अपने पास चला आता हूँ.


मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

main anjaan nahi


मैं अनजान नहीं
इस शहर में
न ही ये शहर अनजान है
मुझसे
घूमता हूँ अकेला
खोजता
अपनी मंजिल
गम की धुंध में दिखती
मेरी मंजिल
खुबसूरत
ठीक शहर क बीचोबीच
सफ़ेद मटमैले पथ्थरो
से सजी
छोटा कब्रिस्तान
सही जगह
अपनी मंजिल पे
कहता तो रहा
मैं अनजान नहीं
और न ही
ये शहर अनजान है मुझसे