बुधवार, 15 दिसंबर 2010

Anjaan ras

समझ न पाया तुझमे मुझमे 
मुझमे तुझमे कैसा भेद 
की हाय 
क्या रस मैंने पाया ?
                   जब भी देखा तुझको मैंने 
                    मुक्त किया मैंने अपना मन 
                    कुछ आवर्धन  कुछ संवर्धन  
                   तब साथ हुआ तन मेरा मुरझाया 
                   समझ न पाया तुझमे मुझमे 
                   मुझमे तुझमे कैसा भेद 
                   की हाय 
                    क्या रस मैंने पाया ..

हलके हलके जब तू बैठी 
हलके हलके मैं तब बैठा 
हलके हलके तू जो बोली 
हलके होके मैं भी बोला 
हलकी मन जो तू मुस्काई
ज्यादा होके मैं मुस्काया 
समझ न पाया तुझमे मुझमे 
मुझमे तुझमे कैसा भेद 
की हाय 
क्या रस मैंने पाया 
                       ज्यू  कुछ सोचे सखी चली तू 
                       भाग मेरे यु छली छली तू 
                       मैं  न रोका तू न रूकती 
                       तू न रोकी मैं न रुकता 
                      दे मुसकाहट होठो पे रे
                      ज्योति जीवन भरमाया 
                      समझ न पाया तुझमे मुझमे 
                      मुझमे तुझमे कैसा भेद  
                     की हाय 
                      क्या  रस मैंने पाया 

नजरो में जब तेरी नजर चहकती 
समर सी जो फूल महकती 
कर नजरे मैं निचे धीमे 
हौले चुराता मोती 
मोती मोटी बुँदे होती 
या 
बुँदे मोटी मोंती..
समझ  पाया तुझमे मुझमे 
मुझमे तुझमे कैसा भेद 
.......
......................

                       
                           

apne pass ..

एक खुबसूरत लफ्ज़ और मीठी आवाज़
मुझे मुझसे जोड़ देती है ,
खुद को भूलकर कभी जो
निकल भी जाऊ खुद से  दूर
तो लौट के अपने पास चला आता हूँ.


मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

main anjaan nahi


मैं अनजान नहीं
इस शहर में
न ही ये शहर अनजान है
मुझसे
घूमता हूँ अकेला
खोजता
अपनी मंजिल
गम की धुंध में दिखती
मेरी मंजिल
खुबसूरत
ठीक शहर क बीचोबीच
सफ़ेद मटमैले पथ्थरो
से सजी
छोटा कब्रिस्तान
सही जगह
अपनी मंजिल पे
कहता तो रहा
मैं अनजान नहीं
और न ही
ये शहर अनजान है मुझसे

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

Maa ne kaha tha

माँ ने कहा था
सबको समेत क चलना आसन नहीं होता
बड़े बच्चे के प्यार में छोटा है रोता
और अगर छोटे को दुलारा तो
बड़ा कभी भी पास नहीं होता,
पापा कहते रहे
खुशिया और फुर्सत साथ नहीं रहते
दो दिन की छुट्टियों में दो हाथ नहीं रहते
मालकिन और नोट दोनों अब दूर हो गए हैं
मेरे हैं, पर जैसे थोड़े मजबूर हो गए हैं
दोस्ती कहती रही
पांच छह सालो में तुमने झूट भी बोला
मेरे पीछे तुमने अपना मुह खोला
करोडो के घर में रखके मुझे कंगाल कर दिया
मेरी बात मनवा के मुझे बेहाल क्र दिया

माँ पापा दोस्ती को किनारे कर
सबको खुश करने चला गया
पहले खून फिर दिल और फिर कलेजा निकाल रा हूँ..
खुश हूँ की सबको संभाल रा हूँ
गिर गिर के संभल रा हूँ
मैं सबको लेके चल रा हूँ

Posted by Nripendra Tiwary at 7/30/2010 12:50:00 AM

Email ThisBlogThis!Share to TwitterShare to FacebookShare to Google Buzz

1 comments:

Bhawna 'SATHI' said...

achi kavita hai..sb ko khush nhi rakha ja skta hai.es liye kisi ek ko chun lo or jindgi usi ke liye ji lo..swagat hai aap ka es blog ki duniya me.

July 30, 2010 4:43 PM