मुझमे तुझमे कैसा भेद
की हाय
क्या रस मैंने पाया ?
जब भी देखा तुझको मैंने
मुक्त किया मैंने अपना मन
कुछ आवर्धन कुछ संवर्धन
तब साथ हुआ तन मेरा मुरझाया
समझ न पाया तुझमे मुझमे
मुझमे तुझमे कैसा भेद
की हाय
क्या रस मैंने पाया ..
हलके हलके जब तू बैठी
हलके हलके मैं तब बैठा
हलके हलके तू जो बोली
हलके होके मैं भी बोला
हलकी मन जो तू मुस्काई
ज्यादा होके मैं मुस्काया
समझ न पाया तुझमे मुझमे
मुझमे तुझमे कैसा भेद
की हाय
क्या रस मैंने पाया
ज्यू कुछ सोचे सखी चली तू
भाग मेरे यु छली छली तू
मैं न रोका तू न रूकती
तू न रोकी मैं न रुकता
दे मुसकाहट होठो पे रे
ज्योति जीवन भरमाया
समझ न पाया तुझमे मुझमे
मुझमे तुझमे कैसा भेद
की हाय
क्या रस मैंने पाया
नजरो में जब तेरी नजर चहकती
समर सी जो फूल महकती
कर नजरे मैं निचे धीमे
हौले चुराता मोती
मोती मोटी बुँदे होती
या
बुँदे मोटी मोंती..
समझ पाया तुझमे मुझमे
मुझमे तुझमे कैसा भेद
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sundr bhav...
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